अरुणिमा सिन्हा वो एक योद्धा थी… जिसकी तलवार लोहे की नहीं, आत्मा की थी।

वो एक योद्धा थीजिसकी तलवार लोहे की नहीं, आत्मा की थी। जिसकी लड़ाई ज़मीन से आसमान तक फैली थी और जो अपनी हार की राख से ही अपनी विजय का पर्वत बना बैठी!

भारत की धरती कई महायोद्धाओं की जननी रही है लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं, जो इतिहास नहीं, प्रेरणा बन जाते हैं। अरुणिमा सिन्हा एक ऐसा नाम, जो आज केवल एक स्त्री नहीं, बल्कि साहस, संकल्प और असंभव को संभव बनाने की पराकाष्ठा का प्रतीक बन चुका है। यह कहानी है एक ऐसी नायिका की, जिसने शरीर के कटे हुए अंग को अपनी सबसे बड़ी शक्ति बना दियाजिसने मौत की दहलीज़ से लौटकर आसमान को अपने पाँवों तले झुका दिया। यह कोई कल्पना नहीं, एक जीवंत गाथा है जो हर उस इंसान को झकझोरती है, जो कभी टूटने के कगार पर खड़ा रहा हो।

20 जुलाई 1988, उत्तर प्रदेश के अंबेडकरनगर ज़िले के एक सामान्य से घर में एक असामान्य आत्मा ने जन्म लिया। पिता सेना में इंजीनियर थे, लेकिन नियति का खेल कुछ ऐसा था कि उनका साया बचपन में ही छिन गया। माँ बनीं मर्म की मूरत और पालन-पोषण की लौ जलाए रखा। बचपन संघर्षों में पला, लेकिन अरुणिमा में खेलों के प्रति एक अलौकिक आकर्षण था जैसे शरीर भागते रहने के लिए ही बना हो, और मनजीतने के लिए। वॉलीबॉल में राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी बनीं, तो लगा था ये लड़की देश के लिए पदक लाएगी किसे पता था, ये लड़की आगे चलकर इतिहास रचेगीऔर पर्वतों को पैरों में लाएगी।

11 अप्रैल 2011 दिन जैसे-जैसे ढल रहा था, अरुणिमा की किस्मत भी अंधेरे में उतर रही थी। पद्मावत एक्सप्रेस में सफर करते वक़्त कुछ लुटेरों ने उसकी चेन छीननी चाही। लेकिन ये कोई साधारण लड़की नहीं थी उसने विरोध किया। नतीजा? चलती ट्रेन से नीचे फेंक दी गई। और इससे पहले कि ज़िन्दगी संभलती, दूसरी पटरी से आ रही ट्रेन ने उसके बाएँ पैर को कुचल डाला। वो पूरी रात पटरी पर पड़ी रही अकेली, घायल, खून से लथपथऔर मौत की हर आहट को सुनती रही। पर हार नहीं मानी। सुबह जब लोगों ने उसे उठाया, तब उसका शरीर टूटा था लेकिन आत्मा…? वो तब भी जिंदा थी, और शायद पहले से ज़्यादा मज़बूत थी।

दिल्ली के AIIMS अस्पताल में 125 दिनों का इलाज, और उस दौरान, जब अधिकतर लोग हताश हो जाते, अरुणिमा ने एक और "पागलपन" का सपना देखा माउंट एवरेस्ट चढ़ने का। हाँ, उसी शरीर के साथ, जिसमें अब कृत्रिम पैर था। उसी हृदय के साथ, जिसने अभी-अभी जीवन का सबसे गहरा घाव झेला था। और उसी मन के साथ, जो अब किसी भी सीमा को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। लोगों ने मज़ाक उड़ाया, कुछ ने तरस खायालेकिन अरुणिमा ने न रोया, न रुकना जाना। उन्होंने बछेंद्री पाल से प्रशिक्षण लिया, और खुद को हिमालय की तरह कठोर बनाया।

21 मई 2013 वो दिन जब इतिहास ने अपनी दिशा बदली। कृत्रिम पैर के सहारे चढ़कर, अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट की चोटी पर तिरंगा लहराया। दुनिया सन्न रह गई और भारतफक्र से झूम उठा। यह कोई व्यक्तिगत विजय नहीं थी, यह उन करोड़ों लोगों की जीत थी, जिन्हें समाज ने "दिव्यांग" कहकर सीमाओं में बाँध दिया था। अरुणिमा ने दुनिया को दिखाया कि "शरीर की कमी" कमजोरी नहीं होती, बल्कि हौसलों की कमी ही असली दिव्यांगता है।

लेकिन युद्ध यहीं नहीं रुका। पर्वतारोहण की दुनिया में भी उन्हें विरोध मिला, उनकी क्षमताओं पर संदेह किया गया। ट्रेन दुर्घटना के बाद कुछ पुलिस अधिकारियों ने इसे आत्महत्या की कोशिश बताया। मानसिक संघर्ष कभी-कभी शारीरिक दर्द से ज़्यादा जानलेवा होता है लेकिन अरुणिमा ने सब सहा, सब जियाऔर सब जीत लिया। कृत्रिम पैर चढ़ाई के दौरान कई बार बाहर निकल जाता, दर्द असहनीय होता, लेकिन वो रुकती नहीं थीं। उनके लिए हर चोट, हर आलोचना, एक और क़दम थी मंज़िल की ओर।

और फिर... एवरेस्ट ही क्यों? अरुणिमा ने इसे अपनी आत्मा की लत बना लिया। उन्होंने दुनिया की सातों महाद्वीपों की सबसे ऊँची चोटियाँ सेवन समिट्स फतह कर डालीं। माउंट किलिमंजारो (अफ्रीका), माउंट एलब्रुस (यूरोप), माउंट विन्सन (अंटार्कटिका), माउंट अकांकागुआ (दक्षिण अमेरिका), माउंट कोसियसको (ऑस्ट्रेलिया) और माउंट कारस्टेंस पिरामिड (इंडोनेशिया) — हर शिखर पर तिरंगा लहराते हुए उन्होंने ये बताया कि जब जज़्बा प्रबल हो, तो कोई महाद्वीप दूर नहीं।

उनकी आत्मकथा “Born Again on the Mountain” एक जीवित दस्तावेज़ है उनके पुनर्जन्म की एक ऐसे व्यक्ति की जिसने मौत को मात दी और ज़िंदगी को नई परिभाषा दी। 2015 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया और उसी वर्ष तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार भी मिला। उनका जयपुरी पैरएक भारतीय वैज्ञानिक सोच की मिसाल बन गया। उन्होंने एक NGO — "Arunima Foundation" भी शुरू की, जो दिव्यांगों और वंचितों के लिए काम करता है।

आज जब वे किसी मंच पर बोलती हैं, तो सिर्फ शब्द नहीं, आत्मा बोलती है। युवाओं को झकझोर कर रख देती है उनके भाषण TEDx की शोभा बन चुके हैं। एक पीढ़ी उन्हें नारीशक्ति, आत्मबल और साहस की सजीव मूर्ति मानती है। राजनीति भले वे न करें, लेकिन उनके कार्यों का सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव गहरा है दिव्यांगजनों के लिए नीति परिवर्तन, सार्वजनिक स्थलों की सुलभता जैसे विषयों पर वे लगातार मुखर हैं।

विशेषज्ञ कहते हैं, अगर मानसिक लचीलापन (resilience) को कोई चेहरा देना हो तो वो अरुणिमा सिन्हा का होगा। इतिहासकार मानते हैं कि वे आधुनिक भारत के उन कुछ प्रतीकों में से हैं, जिन्होंने अपने बलिदान से जनमानस की सोच बदल दी।

लेकिन उनकी सबसे मार्मिक कहानी वो है, जब वे ट्रेन की पटरी पर अकेली पड़ी थीं और उन्होंने ऊपर आसमान की ओर देखकर कहा, "भगवान, तू चाहे तो मुझे उठा ले, लेकिन अगर ज़िंदा रखा, तो कुछ ऐसा करूँगी कि मेरी मौत भी गर्व करेगी!" और शायद तभीखुद नियति ने उन्हें थामा, ताकि वो लाखों को सहारा दे सकें।

आज जब कोई हारने लगता है, जब कोई कहता है मुझसे नहीं होगा”, तो कहीं न कहीं कोई अरुणिमा सिन्हा की कहानी सुनाता है और उस एक कहानी से हज़ारों उम्मीदें फिर से ज़िंदा हो जाती हैं।

ये कोई महिला नहींएक युग है।
एक चेतना है
एक निर्भीक उद्घोष है कि
विकलांगता शरीर में नहींसोच में होती है।

और जब वो माउंट एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी हुई थीं उस क्षण सिर्फ एक तिरंगा नहीं लहरा रहा था
बल्कि एक नई परिभाषा लहरा रही थी
"भारत की बेटी हारी नहीं हैकभी हारी ही नहीं!" 

 

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