हाड़ी रानी की अमर कथा, जिसने इतिहास की धारा बदल दी।


हाड़ी रानी : वह रानी जिसने अपना सिर देकर पति का मोह तोड़ा और मातृभूमि को बचाया

राजस्थान की धूल भरी हवाओं में आज भी एक नाम गूँजता है हाड़ी रानी। जिनका असली नाम था सलह कंवर, बूंदी के शासक संग्राम सिंह हाड़ा की बेटी और मेवाड़ के वीर सामंत रतन सिंह चुंडावत की पत्नी। उनका जीवन केवल एक राजकुमारी या सामंत की पत्नी होने तक सीमित नहीं था, बल्कि वे उस शौर्यगाथा की नायिका बनीं, जिसने त्याग और कर्तव्य की परिभाषा ही बदल दी।

सलह कंवर का जन्म हाड़ा वंश में हुआ वह वंश जो अपनी वीरता, पराक्रम और स्वाभिमान के लिए सम्पूर्ण राजपूताना में विख्यात था। बचपन से ही उनमें अदम्य साहस और आत्मसम्मान की भावना थी। राजमहल के वैभव में पली बढ़ीं, परंतु उनका हृदय राजसी सुखों से बड़ा था उसमें था केवल कर्तव्य और धर्म का भाव।

समय आया जब उनका विवाह मेवाड़ के चुंडावत वंश के वीर सेनापति रतन सिंह से हुआ। विवाह का दिन किसी उत्सव जैसा था डोल नगाड़े बज रहे थे, महलों में दीप जले हुए थे, और राजमहल में आनंद की लहर दौड़ रही थी। पर नियति ने जैसे यह तय कर रखा था कि इस विवाह के साथ ही एक अमर बलिदान की नींव डाली जाएगी।

क्योंकि विवाह के उसी दिन, मेवाड़ के महाराणा राज सिंह का संदेश आया। संदेश में आदेश था कि रतन सिंह तुरंत सेना लेकर अजमेर पहुँचें, जहाँ मुगल बादशाह औरंगजेब की सेनाएँ बढ़ रही थीं। महाराणा स्वयं विवाह बंधन में बंधने जा रहे थे, और इसीलिए मेवाड़ के हरावल अग्रिम पंक्ति की ज़िम्मेदारी चुंडावत वंश को सौंपी गई।

रतन सिंह असमंजस में थे। एक ओर नवविवाहिता पत्नी थी, दूसरी ओर मातृभूमि का आह्वान। यही वह क्षण था जिसने सलह कंवर के जीवन को एक नए मार्ग पर मोड़ दिया। उन्होंने अपने पति को स्पष्ट कहा देश और धर्म सबसे पहले हैं। मैं चाहती हूँ कि तुम वीरता के साथ अग्रिम पंक्ति संभालो, क्योंकि यही चुंडावतोँ का गौरव है।

परंतु रतन सिंह के हृदय में एक पीड़ा थी। वे युद्ध के मैदान में अपनी रानी से दूर कैसे रहेंगे? उन्होंने एक सैनिक को भेजा कि रानी से कोई निशानी लेकर आओ जिससे युद्धभूमि में उसे देख कर उनका मन संतुलित रहे।

यहीं पर इतिहास का सबसे अद्भुत और हृदयविदारक मोड़ आया। हाड़ी रानी ने जब यह सुना, तो उनके भीतर तूफ़ान उठ गया। उन्होंने सोचा अगर मेरा अस्तित्व ही मेरे पति को कर्तव्य से विचलित कर रहा है, तो मेरे जीवन का क्या मूल्य?” उस समय उन्हें केवल मातृभूमि का गौरव और अपने पति का कर्तव्य दिखाई दिया।

और फिर उन्होंने वह कर दिखाया जिसकी कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है। उन्होंने अपने सैनिक को बुलाया और --
और अगले ही पल, उन्होंने अपना सिर काटकर अपने पति के लिए निशानी भेज दी।


कहा भी जाता है
चुंडावत मांगी सेनानी, सर काट दे दियो सतराणी।

जब यह निशानी रतन सिंह तक पहुँची, तो वे स्तब्ध रह गए। उनकी आँखों में आँसू थे, हृदय शोक से भरा था, पर उसी क्षण उनके भीतर अद्भुत ऊर्जा का संचार हुआ। उन्होंने उस सिर को अपने गले में बाँध लिया और रणभूमि की ओर कूच किया।

अजमेर के मैदान में, चुंडावत वंश के इस वीर ने अपनी रानी के बलिदान की ज्योति को कवच बना लिया। उन्होंने औरंगजेब की सेना के आगे बढ़ने के हर प्रयास को विफल कर दिया। तलवारें टकराईं, धरती लहूलुहान हुई, और अंततः रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। पर उन्होंने अपने प्राण देकर भी मुगलों को आगे नहीं बढ़ने दिया।

इतिहास ने इस घटना को सुनहरे अक्षरों में अंकित कर लिया। हाड़ी रानी का नाम केवल एक बलिदान की कथा नहीं बना, बल्कि कर्तव्य की मूर्ति का पर्याय बन गया। आज भी राजस्थान की लोककथाएँ गाती हैं हाड़ी रानी के बलिदान से बड़ा कोई बलिदान नहीं।

उनकी स्मृति को सम्मान देने के लिए, राजस्थान पुलिस की महिला बटालियन का नाम रखा गया हाड़ी रानी बटालियन। यह इस बात का प्रमाण है कि उनका बलिदान केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि आज भी प्रेरणा का स्रोत है।

इतिहासकार मानते हैं कि यह घटना हमें यह सिखाती है कि सच्ची वीरता केवल युद्धभूमि में तलवार उठाने में नहीं, बल्कि आत्मबलिदान और कर्तव्य निभाने में है। यह एक ऐसा प्रसंग है जहाँ एक स्त्री ने अपने जीवन का सबसे बड़ा बलिदान देकर इतिहास की धारा ही बदल दी।

आज जब हम उन्हें स्मरण करते हैं, तो यह केवल अतीत का गौरव नहीं है। यह वर्तमान और भविष्य के लिए संदेश है कि कर्तव्य ही धर्म है, और स्वाभिमान ही जीवन का सबसे बड़ा आभूषण।

और इस गाथा का अंत होता है उस घोषणा के साथ, जो सदियों से गूँज रही है
राजपूतानी मर सकती है, पर अपने पति और मातृभूमि के कर्तव्य में बाधा नहीं बन सकती।

यही है हाड़ी रानी की अमर गाथा एक ऐसी रानी, जिसने अपना सिर देकर जालिम का अभिमान और पति का मोह दोनों राख कर दिए, और आने वाली पीढ़ियों को सिखा दिया कि बलिदान ही सबसे बड़ी वीरता है।

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