साल 1482.मेवाड़ के सिसोदिया वंश में जन्मे संग्राम सिंह जो बने महाराणा सांगा'।
पूरा नाम था —राणा संग्राम सिंह। वे महाराणा रायमल के पुत्र थे,
और बचपन से ही युद्ध-कला,रणनीति और वीरता में पारंगत थे।
15 साल की उम्र में अपने ही भाइयों के साथ सिंहासन के लिए
संघर्ष! पिता से विवाद होने पर घर छोड़ा, दर-दर भटके, लेकिन वापसी ज़बरदस्त हुई! उन्होंने अपने दम पर मेवाड़ की गद्दी हासिल की और कभी हारनहीं मानी।
राजनीतिक दूरदर्शिता: उन्होंने सिर्फ राजपूतों को ही नहीं, बल्कि 100 से ज़्यादा राजपूत कबीलों और यहाँ तक कि कुछ मुस्लिम सरदारों को भी एक झंडे के नीचे एकजुट किया! ये भारतीय इतिहास में पहली 'भारतीय संघ' की नींव थी– एक ऐसा महासंघ जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी।
पर क्या आप जानते हैं?
महाराणा सांगा के जीवन में एक ऐसा पल आया, जब उनकी एक आँख चली गई, एक हाथ कट गया, और शरीर पर इतने ज़ख़्म थे कि कोई भी सामान्य योद्धा जीवनभर बिस्तर से न उठ पाए।
कहानी शुरू होती है एक गद्दारी से...
मेवाड़ और मालवा के बीच एक निर्णायक युद्ध चल रहा था।
इस युद्ध में सांगा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को कई बार पराजित किया था।
लेकिन एक दिन, युद्ध के मैदान में ही उनके ही किसी करीबी सरदार ने —
एक जहर बुझा बाण चलाया जो उनकी आँख में लगा।
उस बाण ने सांगा की एक आँख सदा के लिए छीन ली।
कुछ समय बाद एक और युद्ध में उनका बायाँ हाथ तलवार से कट गया।
अब ज़रा सोचिए — एक आँख नहीं, एक हाथ नहीं, शरीर ज़ख़्मी…
क्या कोई राजा, कोई सेनापति, युद्ध का नेतृत्व कर सकता है?
कहा जाता है कि जब सांगा को एक युद्ध के बाद बहुत गहरे घाव आए, तो उनके सरदारों ने कहा —
"राणा जी! अब विश्राम कीजिए। आपकी देह अब युद्ध नहीं झेल पाएगी।"
सांगा ने कहा:
जब तक मेरी देह में सांस है,
और मेरी आंखों में अपने लोगों का भविष्य,
तब तक मेरा विश्राम —
सिर्फ युद्धभूमि में विजय के बाद ही होगा।"
उसके बाद वह अपना युद्ध-स्थानीय शिविर खुद हाथी पर चढ़कर बदलवाते थे,
ताकि घायल होने के बावजूद सेना को लगे कि
"हमारा राजा अभी भी सबसे आगे है!"
सांगा कौन था?
वो सिर्फ राजपूत नहीं,
वो एक ज़िंदा महाकाव्य था।
एक बार नहीं…
सांगा ने इन घावों के बावजूद 100 से ज़्यादा युद्धों का नेतृत्व किया।
और 90 से ज्यादा बार विजय प्राप्त की।
उनका सबसे प्रसिद्ध युद्ध था —
खानवा का युद्ध (1527),
जहाँ उनका सामना हुआ —
मुगल बादशाह बाबर से।
सांगा ने राजपूतों को एकजुट किया,
चंदेरी से लेकर दिल्ली तक कांप गया था मैदान।
कहा जाता हे की जब बाबर ने पहली बार राणा सांगा को देखातो वह डरके मारे बोला एक इंसान से तो लड़ा जा सकता हे पर एक भूत से कोई कैसे लडे
खानवा के युद्ध में बाबर की सेना के पास तुर्की तोपें थीं।
उनका शोर इतना भयावह था कि कई सेनाएँ मैदान छोड़ देती थीं।
पर जब पहली बार बाबर की तोपें चलीं —
तो सांगा की सेना डरी नहीं… उल्टा और ज़ोर से गरजी!
कहते हैं राणा सांगा ने स्वयं सबसे आगे जाकर सेना से कहा:
तोपों की आवाज़ से अगर हिम्मत डगमगाए,
तो समझो — दुश्मन ने बिना लड़े ही JANG जीत ली!"
उनकी बात सुनकर राजपूतों ने बाबर की सेना पर सीधा हमला बोला,
और शुरुआत में मुगलों को पीछे हटना पड़ा।
उनमें सिर्फ युद्ध कौशल ही नहीं था,
बल्कि राजधर्म,न्याय,और एकता की भी भावना थी।
उन्होंने 500 से ज्यादा राजाओं को एक मंच पर लाकर लड़ाया।
उन्होंने सिर्फ राजपूतों को ही नहीं, बल्कि कई मुस्लिम सरदारों जैसे हसन खान मेवाती को भी अपनी सेना में उच्च पद पर रखा और उन्हें सम्मान दिया – ये दर्शाता है कि वे असली'भारतीय' थे, जो एकता में विश्वास रखते थे।
वे अपने सैनिकों के बीच बैठते थे,आमजन की तरह।
घमंड नहीं, बल्कि सेवा उनका धर्म था।
उन्होंने कभी मुगलों से संधि नहीं की —
बल्कि देश की स्वतंत्रता को सबसे ऊपर रखा।
कुशल संगठनकर्ता: उन्होंने सिर्फ युद्ध नहीं लड़े, बल्कि मेवाड़ को एक आर्थिक और सैन्य सुपरपावर बनाया! 100 से ज़्यादा किले उनके अधीन थे और उनका राज्य इतना समृद्ध थाकि युद्धों के बावजूद कभी धन की कमी नहीं हुई।
त्याग की भावना: जब दिल्ली सल्तनत कमजोर पड़ रही थी, तो उन्हें दिल्ली का सुल्तान बनने का ऑफर मिला।लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया! उन्होंने कहा – मेवाड़ मेरी मातृभूमि है, मुझे उसकी सेवा करनी है, सिंहासन का लालच नहीं!'
जनप्रिय शासक: जनता उन्हें सिर्फ 'राणा' नहीं, बल्कि प्यार से 'सांगा' कहती थी। वे अपनी प्रजा के लिए एक पिता समान थे, और उनकी जनता उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहती थी।उनकी मृत्यु के बाद जनता में गहरा शोक था, जो उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है।"
इतिहासकारों के अनुसार,
सांगा को ज़हर देकर मारा गया —
क्योंकि कुछ दरबारियों को उनका दिल्ली जीतने का सपना डराने लगा था।
लेकिन…
राजपूत दिलों में उनका सपना अमर रहा।
उनकी वीरता ने ही आगे चलकर महाराणा प्रताप जैसे योद्धा को जन्म दिया।"
आज जब हम वीरता की बात करते हैं —
तो सांगा की गाथा प्रेरणा बन जाती है।
स्कूल की किताबों में भले उनका ज़िक्र कम हो,
पर इतिहास उन्हें ‘राजपूतों का लोहपुरुष’कहकर पूजता है।
उनकी कहानी युवाओं को सिखाती है:
अगर इरादे फौलादी हों,
तो एक आँख और एक हाथ से भी इतिहास बदला जा सकता है!"