इतिहास
भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरु शंकराचार्य ने रखी। शंकराचार्य का जन्म 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ, जब भारतीय समाज में अस्थिरता और दिशा की कमी महसूस की जा रही थी। भारत की अपार धन-संपदा के कारण कई आक्रमणकारी यहां आए। कुछ लूटपाट कर लौट गए, तो कुछ यहां की दिव्यता से प्रभावित होकर यहीं बस गए। इस दौरान देश की सामान्य शांति-व्यवस्था भी प्रभावित हुई। धर्म, धर्मशास्त्र, और ईश्वर की अवधारणा को तर्क, शास्त्र और बाहरी आक्रमणों से चुनौतियां मिल रही थीं।
इन परिस्थितियों में शंकराचार्य ने सनातन धर्म को सुदृढ़ बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने भारत के चार कोनों पर चार पीठों की स्थापना की:
गोवर्धन पीठ (पूर्व), शारदा पीठ (पश्चिम), द्वारिका पीठ (उत्तर),और ज्योतिर्मठ पीठ (दक्षिण)।
इसके अलावा, उन्होंने मठों और मंदिरों की संपत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का सामना करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की।
अखाड़ों की स्थापना का उद्देश्य
आदिगुरु शंकराचार्य ने महसूस किया कि सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति पर्याप्त नहीं थी। उन्होंने युवाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाने पर जोर दिया। साधुओं को व्यायाम के माध्यम से अपने शरीर को मजबूत बनाने और हथियार चलाने में कुशलता प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। इसी उद्देश्य से मठों में ऐसे प्रशिक्षण केंद्र बनाए गए, जिन्हें बाद में "अखाड़ा" कहा जाने लगा।
अखाड़ा केवल शारीरिक कसरत और युद्ध कौशल का केंद्र नहीं था, बल्कि यह धर्म, मठ, मंदिर, और श्रद्धालुओं की रक्षा का भी साधन था। समय के साथ, कई अन्य अखाड़ों की स्थापना हुई। शंकराचार्य ने अखाड़ों को यह सुझाव दिया कि जरूरत पड़ने पर मठ और मंदिरों की रक्षा के लिए बल का प्रयोग करें।
नागा साधुओं की भूमिका
बाहरी आक्रमणों के उस दौर में अखाड़े एक प्रकार के सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करते थे। विदेशी आक्रमण के समय, कई स्थानीय राजा-महाराजा नागा साधुओं की सहायता लेते थे। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां नागा योद्धाओं ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी।
एक उल्लेखनीय उदाहरण अहमद शाह अब्दाली के मथुरा-वृंदावन और गोकुल पर आक्रमण के समय का है। इस आक्रमण में नागा साधुओं ने अब्दाली की सेना का वीरतापूर्वक मुकाबला किया और गोकुल की रक्षा की। ऐसे कई गौरवशाली युद्धों का वर्णन इतिहास में मिलता है, जिनमें 40,000 से अधिक नागा योद्धाओं ने अपनी वीरता का परिचय दिया।
निष्कर्ष
आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित अखाड़ों और पीठों ने न केवल भारतीय सनातन धर्म को संगठित और संरक्षित किया, बल्कि बाहरी आक्रमणों के समय समाज की रक्षा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी दूरदृष्टि और कार्य आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।
कौन हैं नागा साधु?
नागा साधु: तप और त्याग के प्रतीक
नागा साधु हिन्दू धर्म के वे संन्यासी हैं जिन्हें तप, त्याग और अदम्य साहस का प्रतीक माना जाता है। ये साधु नग्न रहते हैं और युद्धकला में पारंगत होते हैं। मुख्यतः ये अखाड़ों में निवास करते हैं, जो एक प्राचीन परंपरा है और आदिगुरु शंकराचार्य के समय से चली आ रही है।
जीवनशैली की रहस्यमयता
नागा साधुओं की जीवनशैली रहस्यमयी और अनुशासित होती है। नागा बनने की प्रक्रिया और उनका दैनिक जीवन लोगों के लिए हमेशा से जिज्ञासा का विषय रहा है। यह धारणा गलत है कि नागा साधु कभी वस्त्र धारण नहीं करते। अगर वे चाहें, तो गेरुए रंग का एकमात्र वस्त्र पहन सकते हैं। उनका साधारण और सीमित वस्त्रों का चयन उनकी तपस्या और त्याग का प्रतीक है।
नागा साधुओं को अक्सर शांतिपूर्ण माना जाता है, लेकिन अगर उन्हें किसी कारणवश उकसाया जाए, तो उनका क्रोध अति उग्र हो सकता है। इन साधुओं का विश्वास है कि वे शिव और अग्नि के अनन्य भक्त हैं और संसार के बदलावों से अप्रभावित रहते हैं। यही कारण है कि वे अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं और वस्त्र के स्थान पर आकाश को ही अपनाते हैं। इस विशेषता के कारण उन्हें "दिगम्बर" भी कहा जाता है।
योग और अनुशासन
नागा साधु कठोर अनुशासन का पालन करते हैं। वे तीन प्रकार के योग का अभ्यास करते हैं, जो उन्हें चरम ठंड और कठिन परिस्थितियों में भी सहनशील बनाता है। उनके विचारों और खानपान पर भी गहरा संयम होता है। वास्तव में, नागा साधु एक प्रकार के सैन्य पंथ का हिस्सा होते हैं और उनकी संरचना किसी सैन्य रेजिमेंट जैसी होती है। ये अपने साथ त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम रखते हैं, जो उनके जीवन का अभिन्न अंग हैं।
कुम्भ और विशेष परंपराएं
नागा साधु विशेष रूप से कुम्भ मेले में दिखाई देते हैं। इस मेले के दौरान, उनका दिव्य शृंगार, जिसे "शाही स्नान" के अवसर पर देखा जा सकता है, एक अनूठा अनुभव प्रदान करता है। मान्यता है कि इस शृंगार से युक्त नागा साधुओं के दर्शन मात्र से कई जन्मों के पापों का नाश होता है। अखाड़ों से जुड़े नागा साधु बताते हैं कि उनका यह शृंगार केवल विशेष अवसरों पर किया जाता है और इसमें 17 प्रकार के शृंगार शामिल होते हैं।
महिला नागा साधु
हालांकि नागा साधुओं में पुरुषों का ही वर्चस्व होता है, अब महिलाएं भी इस पथ को अपनाने लगी हैं। महिला नागा साधु अपने शरीर को गेरुए वस्त्र से ढकती हैं और उनकी जीवनशैली पुरुष नागा साधुओं से थोड़ी भिन्न होती है।
आध्यात्मिकता और संकल्प का प्रतीक
नागा साधु न केवल तप और त्याग का प्रतीक हैं, बल्कि वे भगवान शिव और विष्णु के प्रति अपनी गहन भक्ति को जीवन का आधार मानते हैं। उनका जीवन कठोर तपस्या, अनुशासन और आत्मनियंत्रण का आदर्श उदाहरण है।
नागा साधुओं के दर्शन से जुड़ी मान्यताएं और उनकी अद्वितीय जीवनशैली उन्हें भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाती हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया
नागा साधु बनने की प्रक्रिया: एक कठिन और विस्तृत साधना
नागा साधु बनने की प्रक्रिया अत्यंत कठिन और लंबी होती है, जिसमें मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक तपस्या का समावेश होता है। इस यात्रा को पूरा करने में लगभग छह वर्षों का समय लगता है। प्रारंभिक चरणों में, इच्छुक साधु केवल एक लंगोट धारण करते हैं। जब वे कुंभ मेले में अंतिम दीक्षा लेते हैं, तो वे लंगोट भी त्याग देते हैं और शेष जीवन वस्त्र-विहीन रहते हैं।
प्रत्येक अखाड़ा, नागा साधु बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति की कठोर जाँच-पड़ताल करता है। पात्रता सुनिश्चित करने के लिए, इच्छुक व्यक्ति को पहले लंबे समय तक ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इसके बाद उसे महापुरुष और फिर अवधूत का दर्जा दिया जाता है। नागा साधु बनने की अंतिम और महत्वपूर्ण प्रक्रिया महाकुंभ के दौरान पूरी होती है। इस चरण में, साधक स्वयं का पिंडदान करते हैं, जो उनके सांसारिक जीवन से पूर्णतः विमुख होने का प्रतीक होता है। इसके साथ ही, दंडी संस्कार और अन्य विधियां संपन्न की जाती हैं।
स्वयं का पिंडदान: साधना का चरम बिंदु
नागा साधुओं की प्रशिक्षण प्रक्रिया इतनी कठोर होती है कि इसकी तुलना कमांडो ट्रेनिंग से की जाती है। दीक्षा लेने से पहले, साधकों को अपनी योग्यता सिद्ध करनी होती है। इस यात्रा के दौरान, वे स्वयं का पिंडदान और श्रद्धापूर्वक तर्पण करते हैं, जो उनके पुराने जीवन का अंत और आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत मानी जाती है।
प्राचीन काल में, नागा साधुओं को अखाड़ों और मंदिरों की रक्षा के लिए योद्धा के रूप में प्रशिक्षित किया जाता था। वे धर्मस्थलों की सुरक्षा के लिए कई युद्धों में भी भाग ले चुके हैं। आज भी, नागा साधु बनने के लिए कठोर परीक्षाओं से गुजरना होता है। इन साधुओं को समाज और सांसारिक बंधनों से अलग, विशेष पहचान के साथ जीवन व्यतीत करना होता है।
अखाड़े की भूमिका और चयन प्रक्रिया
नागा साधु बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति का अखाड़ा गहन जांच करता है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि साधु बनने की उसकी मंशा सही और दृढ़ हो। उसकी और उसके परिवार की पूरी पृष्ठभूमि का मूल्यांकन किया जाता है। अगर अखाड़ा यह निर्णय लेता है कि व्यक्ति योग्य है, तो उसे प्रवेश की अनुमति दी जाती है।
प्रवेश के बाद, उसे ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। यह अवधि छह महीने से लेकर एक वर्ष तक हो सकती है। यदि गुरु और अखाड़ा यह सुनिश्चित कर लें कि साधक दीक्षा के योग्य हो गया है, तो उसे अगले चरण में प्रवेश दिया जाता है।
साधना और समर्पण की पराकाष्ठा
नागा साधु बनने की यह प्रक्रिया न केवल आध्यात्मिक तपस्या है, बल्कि यह अनुशासन, समर्पण और धैर्य की भी पराकाष्ठा है। यह साधु जीवन की ओर अग्रसर होने की एक गहन साधना है, जो इच्छुक व्यक्ति को संसार से परे एक उच्च उद्देश्य के लिए समर्पित करती है।
ऐसे करते हैं शृंगार
शृंगार की प्रक्रिया और नागा साधु के नियम
नागा साधु के शृंगार में विशेष प्रकार के आभूषण और प्रतीक होते हैं, जो उनके जीवन के महत्व को दर्शाते हैं। उनका शृंगार लंगोट, भभूत, चन्दन, पैरों में लोहे या चाँदी के कड़े, अंगूठी, पंचकेश, कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कुण्डल, हाथों में चिमटा, डमरू या कमण्डल, गुँथी हुई जटाएँ, तिलक, काजल, कड़ा, बदन पर विभूति का लेप और बाहों में रुद्राक्ष की माला जैसी चीजों से सजाया जाता है। जबकि एक सामान्य सुहागिन महिला 16 शृंगार करती है, एक नागा साधु 17वें शृंगार के लिए प्रसिद्ध हैं—‘भस्म’। यह सफेद भस्म उनके शरीर का एकमात्र आभूषण होता है, और वे रुद्राक्ष की माला पहनते हैं, जैसा कि भगवान शिव के बारे में मान्यता है कि वे 11 हजार रुद्राक्ष की माला धारण करते हैं।
नागा साधु बनने के बाद के नियम
नागा साधु बनने के बाद, साधु को कुछ विशेष नियमों का पालन करना होता है। यह नियम उसे असली नागा साधु बनने की प्रक्रिया में मार्गदर्शन करते हैं:
महापुरुष बनना: जब व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए परीक्षा में सफल होता है, तो उसे महापुरुष का दर्जा दिया जाता है। उसे पाँच गुरु, जो पंचदेव (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं, दिए जाते हैं। ये गुरु उसे भस्म, भगवा वस्त्र, रुद्राक्ष आदि प्रदान करते हैं, जो नागाओं के प्रतीक होते हैं।
अवधूत की अवस्था: महापुरुष बनने के बाद साधु को अवधूत की अवस्था प्राप्त होती है। इस दौरान उसे अपने बाल कटवाने होते हैं, और वह अपना तर्पण और पिण्डदान खुद करता है। इनका उद्देश्य सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा करना होता है, और वे परिवार और संसार के लिए मृत घोषित हो जाते हैं।
ब्रह्मचर्य का पालन: नागा साधु बनने से पहले व्यक्ति का ब्रह्मचर्य पालन परखा जाता है, जिसमें दैहिक और मानसिक दोनों प्रकार के नियंत्रण की परीक्षा होती है। उसे वासना और इच्छाओं से मुक्त होने की शर्त पूरी करनी होती है।
सेवाकार्य: दीक्षा लेने वाले व्यक्ति में सेवाभाव का होना आवश्यक है, क्योंकि साधु का मुख्य उद्देश्य धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा करना होता है। कई बार दीक्षा के दौरान, साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है।
पृथ्वी पर सोना: नागा साधु के लिए यह नियम है कि वह किसी भी तरह के बिस्तर या गद्दे पर न सोए। वह केवल पृथ्वी पर ही सोता है, क्योंकि यह एक कठोर और अनिवार्य नियम है।
मन्त्र में आस्था: दीक्षा के बाद साधु को अपने गुरु से मिले गुरुमन्त्र में सम्पूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी सारी तपस्या और साधना इसी गुरु मन्त्र के आधार पर होती है, और इसे अपनी धार्मिक यात्रा का केन्द्र मानता है।
इन कठोर नियमों और शृंगार के साथ, नागा साधु अपने जीवन में साधना और तपस्या की ओर बढ़ते हैं, जिससे वे आध्यात्मिक उन्नति और धर्म की रक्षा की दिशा में कार्य करते हैं।
वर्तमान स्थिति
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात, इन अखाड़ों ने अपने सैन्य स्वरूप को त्याग दिया। इसके बाद, इन अखाड़ों के प्रमुखों ने इस बात पर बल दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन करें और उनका पालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। वर्तमान में 13 प्रमुख अखाड़े अस्तित्व में हैं, जिनके शीर्ष पर महंत आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
1) प्रमुख अखाड़ों का विवरण
श्री निरंजनी अखाड़ा:
स्थापना: 826 ई. में गुजरात के मांडवी में। शाखाएं: प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यम्बकेश्वर, और उदयपुर।
2) श्री जूनादत्त/जूना अखाड़ा:
स्थापना: 1145 ई. में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में। अन्य नाम: भैरव अखाड़ा। ईष्टदेव: रुद्रावतार दत्तात्रेय।
3) श्री महानिर्वाण अखाड़ा:
स्थापना: 671 ई. में बैजनाथ धाम में। ईष्टदेव: कपिल मुनि।
4) श्री अटल अखाड़ा:
स्थापना: 569 ई. में गोंडवाना क्षेत्र में। ईष्टदेव: भगवान गणेश।
5) श्री आह्वान अखाड़ा:
स्थापना: 646 ई. में। ईष्टदेव: श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन। मुख्य केंद्र: काशी।
6) श्री आनन्द अखाड़ा:
स्थापना: 855 ई. में मध्यप्रदेश के बेरार में। मुख्य केंद्र: वाराणसी।
7) श्री पंचाग्नि अखाड़ा:
स्थापना: 1136 ई. में। ईष्टदेव: गायत्री। मुख्य केंद्र: काशी।
8) श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:
स्थापना: 866 ई. में अहिल्या-गोदावरी संगम पर। संस्थापक: पीर शिवनाथ जी। प्रमुख देवता: गोरखनाथ।
9) श्री वैष्णव अखाड़ा:
स्थापना: 1595 ई. में दारागंज में।
10) श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:
स्थापना: 1910 में। प्रमुख सदस्य: उदासीन साधु, महंत, और महामंडलेश्वर।
11) श्री उदासीन नया अखाड़ा:
स्थापना: 1710 ई. में। अन्य नाम: बड़ा उदासीन अखाड़ा। शाखाएं: प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, और त्र्यम्बकेश्वर।
12) श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:
स्थापना: 1784 ई. में। ईष्ट पुस्तक: श्री गुरु ग्रंथ साहिब।
13) निर्मोही अखाड़ा:
स्थापना: 1720 ई. में रामानंदाचार्य द्वारा।
विशेष उल्लेख:
प्राचीन परंपरा के अनुसार, लोमश ऋषि द्वारा तंत्र शास्त्र पर आधारित "आगम मठ" की स्थापना की गई।
इसका मुख्यालय वर्तमान में हिमालय में स्थित है।
यह विवरण विभिन्न अखाड़ों के ऐतिहासिक, धार्मिक, और भौगोलिक महत्व को दर्शाता है।