स्वामी विवेकानंद अपने समय से कितने आगे थे, यह उनके पत्रों से व्यक्त होता है। वे जात-पात और भेद-भाव से मुक्त भारत देखना चाहते थे। गुरु भाइयों को समय-समय पर लिखे उनके पत्रों में यही भावना प्रकट होती है। उनके ये विचार 21वी सदी के भारतियों के व्यवहार पर भी बहुत हद तक लागु होते हैं।
"युवाओं, आओ, देश की नवजागृति के लिए जुट जाओ"
मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोड़ो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ़ रहे हैं।
ओरिएंटल होटल, याकोहामा 10 जुलाई 1883
।। कायरता और पाप नहीं होगा तो अन्य सारी आवश्यक चीजें अपने आप आ जाएंगी ।।
प्रिय फकीर,
एक बात मैं तुमसे कहना चाहता हूं, इसे सदा स्मरण रखना, नीति परायण तथा साहसी बनो। अन्तः करण पूर्णतः शुद्ध रखना चाहिए। प्राणों के लिए कभी ना डरो। धार्मिक मत-मतांतरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची मत करो। कायर तथा दुर्बल लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरूष तो कभी मन में भी पाप का विचार तक नहीं लाते। साहसी तथा शक्तिशाली व्यक्ति सदा ही अच्छे आचरण वाले होते हैं। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो तथा तुम्हारी देखभाल में जो साथी हैं, उन्हें साहसी, सदवर्तनी तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनाने की चेष्ठा करो। बच्चों, तुम्हारे लिए जीवन में हिम्मत और आचरण की निर्मलता को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतांतर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप, असदआचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाकी आवश्यक वस्तुएं अपने आप आकर उपस्थित होंगी। अपने साथी को कभी सिनेमा देखने के लिए या अन्य ऐसे किसी प्रकार के खेल-तमाशे में, जिससे चित की दुर्बलता बढ़ती हो, स्वयं न ले जाना न जाने देना।
तुम्हारा :
विवेकानन्द
इलाहाबाद, 5 जनवरी 1890