बाबा रामदेव जी का जीवन परिचय: चमत्कार, उपदेश, समाधि और रामदेवरा मंदिर का इतिहास

भगवान बोले:
जाओ, तुम्हारा पहला पुत्र विरमदेव होगा। और दूसरा पुत्र मैं स्वयं तुम्हारे घर जन्म लूंगा।
अजमल जी ने पूछा:
प्रभु, जब आप जन्म लेंगे तो हमें कैसे पता चलेगा?
भगवान बोले:
गाँव के सभी मंदिरों में स्वयं घंटियाँ बजने लगेंगी।
पानी के घड़े दूध में बदल जाएंगे।

तुम्हारे आंगन में कुमकुम की पगडंडियाँ दिखाई देंगी।

"जानिए बाबा रामदेव जी का सम्पूर्ण जीवन इतिहास, उनके चमत्कार, उपदेश, रामदेवरा मंदिर और जीव समाधि की प्रेरणादायक कथा हिंदी में।"

रामदेव जी महाराज की जय! – यह केवल एक जयकारा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था और भक्ति की पुकार है। बाबा रामदेव जी, जिन्हें रामापीर, रामदेव पीर, रूणीशा धनी, नेजा धारी, लीलेरी असवारी और रामसा पीर भी कहा जाता है, 14वीं शताब्दी के एक ऐसे संत थे, जिन्होंने जाति, धर्म, वर्ग और समुदाय से ऊपर उठकर मानवता का संदेश दिया। बाबा रामदेवजी एक मात्र ऐसे देवता है जिनको हिन्दू मुस्लिम दोनों पूजते हैं | 

बाबा रामदेवजी महाराज या बाबा रामसा पीर राजस्थान के एक सुप्रसिद्ध लोक देवता हैं। जो 15वी शताब्दी के आरम्भ में भारत में लूट खसोट और झगडों के कारण स्थितियाँ बड़ी ख़राब बनी हुई थीं। बताया जाता है की उस समय भेरव नाम का राक्षस का आतंक था।

राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता हैं राजस्थान के जैसलमेर जिले में पोखरण तहसील में रामदेवरा में बाबा रामदेवजी का विशाल समाधी स्थल हैं | वही रामदेवरा से 120 किलोमीटर दूर बारमेर जिले में उन्डू काश्मीर गाँव में बाबा रामदेवजी का जन्म स्थान पे भव्य मन्दिर बना हुआ हैं | बाबा रामदेवजी को राजस्थान गुजरात में लोक देवता के रूप में पूजा जाता हैं | मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महारास्ट्रा, हरियाणा, पंजाब में भी बाबा रामदेवजी की पूजा की जाती हैं | बाबा रामदेवजी के रूणीशा में दूर-दूर से श्रद्धालु अपनी मनोकामना लेके पैदल बाबा की पूजा करने के लिए आते हैं यहाँ पर जो भक्त मनसे बाबा की आराधना करते हैं उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती हैं| बाबा रामदेवजी का मेला प्रति वर्ष भादों सुदी 2 से 11 तक लगता हैं इस समय यहाँ लाखों लोग रामदेवजी की पूजा करने आते हैं | बाबा रामदेवजी निर्धनों को धन, निपुत्रो को पुत्र, अन्धो को आखोँ, अनेक प्रकार की मनोकामना पुर्ण करते हैं यह मेला बाबा रामदेव नाम से विश्व विख्यात हैं |

उन्डू काश्मीर गाँव में बाबा रामदेवजी का जन्म स्थान पे भव्य मन्दिर

बाबा रामदेव जी का संपूर्ण इतिहास

आज से लगभग 1000 वर्ष पूर्व चंद्रवंशी वंश में राजा अनंगपाल का जन्म हुआ। वे एक पराक्रमी और न्यायप्रिय राजा थे। उनके राज्य में प्रजा अत्यंत सुखी रहती थी। उन्होंने ही तंवर वंश की नींव रखी, जो वंश सदैव भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करता रहा।

राजा अनंगपाल की पांचवीं पीढ़ी में रणसी जी का जन्म हुआ। रणसी जी के आठ पुत्र थे। लेकिन कुछ ही वर्षों में रणसी जी का निधन हो गया। रणसी जी की मृत्यु की खबर फैलते ही अलाउद्दीन खिलजी ने नरेना पर हमला कर दिया। इस युद्ध में रणसी जी के छह पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए, और शेष दो पुत्र – अजमल जी और धनरूप जी बचे।

सन् 1375 ई. में, इन दोनों भाइयों ने बाड़मेर जिले की शिव तहसील में स्थित ऊडू-काश्मीर नामक गांव की स्थापना की। अजमल जी का स्वभाव अत्यंत सेवाभावी था, उन्होंने प्रजा की भलाई के लिए निरंतर कार्य किया। धीरे-धीरे उनकी ख्याति पूरे मारवाड़ क्षेत्र में फैल गई।

इसी समय, जैसलमेर में राजा जयसिंह का शासन था। उनके राजमहल में एक कन्या का जन्म हुआ। राजा ने नामकरण हेतु श्रेष्ठ ब्राह्मणों और ज्योतिषियों को बुलवाया। सभी विद्वानों ने मिलकर कन्या का नाम मैणादे रखा।

जब राजा ने ज्योतिषियों से मैणादे के भाग्य के बारे में पूछा, तो वे कुंडली और ग्रह-स्थिति देखकर चौंक गए। उन्होंने भविष्यवाणी की:

हे राजन! यह कन्या अत्यंत भाग्यशाली होगी। एक दिन सारा संसार इसे ‘मैणादे’ के नाम से जानेगा। इसके नाम की गाथाएँ गाई जाएंगी।

समय बीता, मैणादे बड़ी हुई। एक दिन राजा ने दरबार में सभी मंत्रियों और दरबारियों के साथ मिलकर उसके विवाह पर चर्चा की। तभी एक मंत्री ने सुझाव दिया कि:

राजन, यदि राजकुमारी का विवाह रणसी जी के पुत्र अजमल जी से कर दिया जाए तो यह एक उत्तम निर्णय होगा। वह धर्मनिष्ठ, न्यायप्रिय और प्रजापालक राजकुमार हैं।

राजा को यह प्रस्ताव बहुत पसंद आया, और उन्होंने यह बात रानी को बताई। रानी भी प्रसन्न हुईं। इसके बाद राजा ने पंडितों को बुलवाकर विवाह का मुहूर्त और लग्न निकलवाया और ऊडू-काश्मीर में अजमल जी और धनरूप जी के पास भेजा।

धनरूप जी ने पंडितों का आदर-सत्कार कर विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

सन् 1376 ई. में वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया के दिन अजमल जी और मैणादे का विवाह संपन्न हुआ।

विवाह के चार वर्ष बाद, सन् 1380 ई. में धनरूप जी का भी विवाह संपन्न हुआ।

अजमल जी सदैव प्रजा की भलाई में लगे रहते थे। परंतु एक कमी उन्हें व्यथित करती थी — संतान का अभाव। कुछ समय पश्चात धनरूप जी को दो पुत्रियाँ और एक पुत्र प्राप्त हुए। लेकिन दुर्भाग्यवश, पुत्र कुछ ही समय जीवित रहा और चल बसा।

अजमल जी अत्यंत दुखी रहने लगे। उन्हें चिंता सताने लगी कि वंश आगे कैसे बढ़ेगा। वे निरंतर द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण की पूजा और प्रार्थना में लीन रहने लगे। वे कई बार द्वारका भी गए, केवल एक पुत्र प्राप्ति की आशा में।

इसी समय, पोखरण की उत्तर दिशा में स्थित पहाड़ी में भैरव नामक राक्षस का आतंक बढ़ता जा रहा था। उसने आसपास के क्षेत्रों में भय और उत्पात फैला रखा था।

अजमलजी का द्वारका प्रस्थान – बाबा रामदेव जी की कथा का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय

एक दिन वर्षा ऋतु के समय, जब बारिश हो रही थी, राजा अजमल जी अपने महल से बाहर घूमने के लिए निकले। रास्ते में उन्होंने देखा कि कुछ किसान बैल लेकर खेत जोतने जा रहे हैं। यह दृश्य देखकर अजमल जी बहुत प्रसन्न हुए।

लेकिन तभी एक अजीब बात हुई। किसानों की नजर जब अजमल जी पर पड़ी, तो वे निराश होकर खेत जोतना छोड़, अपने-अपने घरों की ओर लौटने लगे। यह देखकर अजमल जी ने आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछा:

"तुम लोग वापस क्यों जा रहे हो?"

कोई उत्तर नहीं मिला। बार-बार पूछने पर एक किसान बोला:

"हे राजन! आप बड़े दयालु और धर्मनिष्ठ राजा हैं, लेकिन भगवान ने आपको संतान नहीं दी। आप निःसंतान हैं। आज हमने आपके दर्शन कर लिए, अब कोई भी शुभ कार्य हम आरंभ नहीं कर सकते। अगर हम आज खेत जोते तो उसमें एक भी दाना उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए हम कल जोतेंगे।"

यह सुनकर अजमल जी स्तब्ध रह गए। उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। वे सोचने लगे:

"मैं अपनी प्रजा के लिए दिन-रात सोचता हूँ, और वही प्रजा अब मेरे दर्शन को अपशकुन मानती है!"

दुखी मन से अजमल जी महल लौटे और रानी मैणादे को सारी बात बताई। वे बोले:

"मैंने भगवान की इतने वर्षों से पूजा की, लेकिन सब व्यर्थ लगने लगा है। ये पत्थर की मूर्तियाँ भी पत्थर ही हैं, इनमें कोई जीवन नहीं!"

यह सुनकर रानी मैणादे ने कहा:

"स्वामी, आपके जैसे भक्त को ऐसा बोलना शोभा नहीं देता। आपके दुख का निवारण केवल द्वारकाधीश ही करेंगे। आइए, हम कल प्रातः ही द्वारका की यात्रा प्रारंभ करें।"
अजमल जी रानी की बात से सहमत हो गए। दोनों ने प्रसाद हेतु लड्डू बनाए, और पैदल यात्रा करते हुए द्वारका पहुंचे।
द्वारका में, भगवान की मूर्ति के सामने खड़े होकर अजमल जी भावुक होकर बोले:
हे प्रभु! मैं 26 बार आपकी द्वारका यात्रा कर चुका हूँ। आप सभी की मनोकामना पूरी करते हैं, कृपया मेरी झोली भी भर दो।
उन्होंने बार-बार पुकारा, लेकिन भगवान ने कोई उत्तर नहीं दिया।
क्रोध और निराशा में, अजमल जी ने प्रसाद के लड्डू उठाकर भगवान की मूर्ति पर दे मारे और बोले:
आज से मैं आपकी पूजा नहीं करूंगा!
इतना कहकर वे बेहोश होकर गिर पड़े। कुछ समय बाद जब उन्हें होश आया, उन्होंने वहाँ के पुजारी से पूछा:
तुम्हारा द्वारकानाथ कहाँ रहता है?
पुजारी बोला:
यदि आप भगवान के दर्शन करना चाहते हैं, तो समुद्र में जाइए।
अजमल जी ने पूछा:
समुद्र में कहाँ से जाना होगा?
पुजारी उन्हें वहाँ ले गया जहाँ समुद्र सबसे गहरा था और बोला:
यहीं से जाओ।
अजमल जी ने एक क्षण भी नहीं गंवाया और समुद्र में कूद गए।
अंदर उन्होंने देखा कि एक सोने की नगरी है। वहाँ भगवान शेषनाग पर विश्राम करते हुए दिखाई दिए।
अजमल जी भगवान के चरणों में बैठ गए और भावुक होकर बोले:

हे प्रभु! मैंने आपको कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा, अब जाकर आपके दर्शन हुए हैं।

भगवान बोले:

हे भक्त, उठो!
अजमल जी ने देखा कि भगवान के सिर पर पट्टी बंधी हुई है, और रक्त बह रहा है। उन्होंने पूछा:
प्रभु! आप तो परमब्रह्म हो, आपके सिर पर यह पट्टी और खून कैसे?
भगवान मुस्कुराते हुए बोले:
तेरे जैसे एक भक्त ने मुझे लड्डू मारा था, जिससे मेरे सिर से खून निकला। इसलिए पट्टी बाँधी है।
अजमल जी को सब याद आ गया। उन्होंने फूट-फूटकर रोते हुए क्षमा माँगी।
भगवान द्वारकाधीश ने कहा:
वत्स, क्या चाहिए तुम्हें?
अजमल जी बोले:
हे प्रभु, मेरे राज्य से दूर एक पहाड़ी में भैरव राक्षस ने आतंक मचा रखा है। वह 12-12 कोस तक किसी को जीवित नहीं छोड़ता। कृपया उससे मुक्ति दिलाएं।

दूसरी प्रार्थना – प्रभु! यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मुझे आप जैसा पुत्र दें।"

भगवान बोले:

जाओ, तुम्हारा पहला पुत्र विरमदेव होगा। और दूसरा पुत्र मैं स्वयं तुम्हारे घर जन्म लूंगा।

अजमल जी ने पूछा:

प्रभु, जब आप जन्म लेंगे तो हमें कैसे पता चलेगा?

भगवान बोले:

गाँव के सभी मंदिरों में स्वयं घंटियाँ बजने लगेंगी।

पानी के घड़े दूध में बदल जाएंगे।

तुम्हारे आंगन में कुमकुम की पगडंडियाँ दिखाई देंगी।

इतना कहकर भगवान ने अजमल जी को समुद्र के ऊपर चलाते हुए बाहर भेज दिया।
बाहर आकर अजमल जी ने मैणादे को सब कुछ बताया और कहा:
भगवान ने हमें पुत्र का वरदान दिया है!

दोनों बहुत प्रसन्न होकर अपने राज्य लौट आए।

लोक देवता पीरों के पीर बाबा रामदेव जी का जन्म

द्वारकानाथ के वरदान अनुसार सन् 1406 में मैणादे ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम विरमदेव रखा | श्री रामदेव जी का जन्‍म भादो शुक्ल पक्ष दूज के दिन विस. 1409 सोमवार के दिन बाबा रामदेव पीर का हुए जन्म हुआ। राम देव जी का जन्‍म ऊणडू काचमीर मे हूआ था जो बाडमेर जिला बायतू तहसिल मै है जिसका प्रमाण श्री रामदेव जी के श्रीमुख से कहे गये प्रमाणों में है जिसमें लिखा है सम्‍वत चतुर्दश साल नवम चैत सुदी पंचम आप श्री मुख गायै भणे राजा रामदेव चैत सुदी पंचम को अजमल के घर मैं आयों जो कि तुवंर वंश की बही भाट पर राजा अजमल द्वारा खुद अपने हाथो से लिखवाया गया था जो कि प्रमाणित है और गोकुलदास द्वारा कृत श्री रामदेव चौबीस प्रमाण में भी प्रमाणित है

उस समय सभी मंदिरों में घंटियां बजने लगीं, तेज प्रकाश से सारा नगर जगमगाने लगा। महल में जितना भी पानी था वह दूध में बदल गया, महल के मुख्य द्वार से लेकर पालने तक कुमकुम के पैरों के पदचिन्ह बन गए, महल के मंदिर में रखा संख स्वत: बज उठा। उसी समय राजा अजमल जी को भगवान द्वारकानाथ के दिये हुए वचन याद आये और एक बार पुन: द्वारकानाथ की जय बोली।

रामदेव के उपनाम – रामसापीर ( मुसलमान) / रूणेचा रा घणी / पीरो के पीर / कृष्ण के अवतार / साम्प्रदायिक सदभाव लोकदेवता  

रामदेवजी तंवर वंशीय राजपूत थे।

जन्म वर्ष : भाद्रपद शुक्ल द्वितीय 1352 ईस्वी (विक्रम संवत 1409)
नोट:– बाबा रामदेव जी के जन्म के वर्ष को लेकर इतिहासकरो में मतभेद है लेकिन माना जाता है कि इनका जन्म 14 शताब्दी में हुआ है।
जन्म स्थान : रूणीचा गाँव (अब रामदेवरा), जैसलमेर ज़िला, राजस्थान
वंश : तोमर वंशीय राजपूत
पिता : राजा अजमल सिंह तंवर
माता : रानी मैणादे
भाई : वीरमदेव (बलराम के अवतार) रामदेव जी के भाई थे।
बहिनें : लाछा बाई , सुगना बाई (सगी बहनें) व डाली बाई (मुंहबोली बहन) यह तीनों रामदेव जी की बहने थी।
जीवन संगी : नैतलदे (दलसिंह सोढ़ा की पुत्री, अमरकोट, पाकिस्तान) जो अपंग थी।
गुरु : बालीनाथ (इनकी समाधि मसूरिया पहाड़ी जोधपुर में है जहां कुष्ठ रोग का ईलाज होता है) रामदेव जी के गुरू थे।
राज घराना/वंश : तोमर वंशीय राजपूत
वाहन : लीला घोड़ा / नीला घोड़ा
पंथ : रामदेव जी ने कामड़िया पंथ चलाया।
धर्म : हिन्दू

समाधी : रामदेवरा

बाबा रामदेव जी का जन्म एक राजघराने में हुआ था, लेकिन उनका झुकाव सांसारिक भोग विलास की बजाय अध्यात्म और सेवा की ओर था। बचपन से ही वे करुणामय, विनम्र और चमत्कारी स्वभाव के थे।

2. बचपन के चमत्कार और दिव्यता के संकेत

बचपन में ही बाबा रामदेव जी ने कई चमत्कार किए, जिससे लोगों ने उन्हें अवतार मानना शुरू किया। एक घटना के अनुसार, उन्होंने एक विकलांग बालक को चलने की शक्ति प्रदान की। वे अपने आस-पास के पशु-पक्षियों से संवाद कर लेते थे और उनके हाव-भाव में गहराई होती थी।


3. शिक्षा और आध्यात्मिक जागरण

रामदेव जी ने बाल्यकाल में ही शास्त्रों का अध्ययन शुरू किया। वे केवल धार्मिक ग्रंथों तक सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने जन-जीवन से जुड़े विषयों पर भी गहन चिंतन किया। उन्होंने योग, भक्ति और सेवा को जीवन का आधार बनाया।

4. उपदेश और दर्शन

हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव जी ने अपने अल्प जीवन में वह कार्य कर दिखाया जो सैकडो वर्षों में भी होना सम्भव नही था। सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाने के लिए सभी धर्मो में एकता स्थापित करने के कारण बाबा रामदेव हिन्दुओ के देवता है। तो वही मुसलमानों के लिए रामसा पीर है। रामदेव बाबा ने हमेशा ही दलितों की समाज सेवा की है। बाबा रामदेव ने एक दलित कन्या डाली बाई को अपने घर में पाल कर उसका भरण पोसन किया था। देखा जाये तो आज बाबा के भक्तो की ज्यादा संख्या दलित लोगो की है। 

बाबा रामदेव जी ने समानता, भाईचारा, अहिंसा और करुणा का संदेश दिया। उन्होंने जीवन पर्यंत कहा कि—
सभी जीव ईश्वर की संतान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं।
उन्होंने भक्ति को कर्म से जोड़ा और सेवा को सर्वोपरि बताया। उनके प्रमुख विचार थे:
1)  जातिवाद और छुआछूत का विरोध
2) सभी धर्मों का सम्मान
3) गरीबों की सेवा

4) स्त्रियों के सम्मान की शिक्षा

5. चमत्कार और लोककथाएं :

बाबा रामदेव जी से जुड़ी कई चमत्कारी कथाएं प्रसिद्ध हैं:

1. बाल अवस्था में माता को पहला पर्चा:

रामदेव जी जब बालक अवस्था में थे, तब एक दिन वह अपने बड़े भाई विरमदेव जी के साथ माता मैणादे की गोद में खेल रहे थे। उसी समय एक दासी गायों का दूध लेकर आई और वह दूध माता मैणादे को दे दिया। दासी भी दोनों भाइयों को खेलते देख मंत्रमुग्ध होकर वहीं रुक गई। माता मैणादे ने दूध को चूल्हे पर गरम करने रख दिया और वापस आकर बच्चों के पास बैठ गई। इतने में दूध गरम होकर बर्तन से बाहर बहने लगा। जैसे ही माता की नजर दूध पर पड़ी, वह रामदेव जी को छोड़कर दूध को नीचे उतारने के लिए उठी।

तभी बालक रामदेव जी ने अपना हाथ दूध की ओर बढ़ाया, और चमत्कार स्वरूप वह बर्तन स्वयं चूल्हे से नीचे उतर आया। यह अलौकिक दृश्य देखकर नगर में चर्चा फैल गई। नगर के सभी लोग यह चमत्कार देखने के लिए महल में पहुंच गए।

2. माता के स्तनों से दूध की धारा - दूसरा पर्चा:

एक बार रामदेव जी रोने लगे। माता मैणादे ने सोचा कि बच्चा भूख के कारण रो रहा है। तभी अचानक उनके स्तनों से दूध की दो धाराएं बहने लगीं। एक धारा पालने में सो रहे बड़े भाई विरमदेव जी के मुख में गई और दूसरी रामदेव जी के मुख में।

यह अद्भुत दृश्य देखकर वहां खड़े सभी नगरवासी स्तब्ध रह गए और सभी ने "अजमल जी के लाल की जय" के नारे लगाने शुरू कर दिए।

3. दर्जी को कपड़े के घोड़े वाला पर्चा:

जब रामदेव जी थोड़े बड़े हुए, तब एक दिन उन्होंने एक घुड़सवार को देखा और बाल सुलभ जिद पकड़ ली कि उन्हें भी घोड़ा चाहिए। माता मैणादे और पिताश्री अजमल जी ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया, पर रामदेव जी नहीं माने।

अंततः अजमल जी ने नगर के दर्जी को बुलवाया और कहा कि कपड़े का एक सुंदर घोड़ा बनाकर लाओ। दर्जी घर गया और पुराने कपड़ों से एक सुंदर घोड़ा बनाकर ले आया। रामदेव जी की जिद शांत हो गई और वे उस घोड़े पर बैठ गए।

जैसे ही रामदेव जी ने घोड़े की पीठ पर सवारी की, वह कपड़े का घोड़ा हिनहिनाने लगा और आकाश में उड़ गया। यह दृश्य देखकर सभी लोग चकित रह गए – एक कपड़े का घोड़ा आकाश में कैसे उड़ सकता है?

अजमल जी को शक हुआ कि दर्जी ने कोई जादू-टोना किया है, इसलिए उन्होंने दर्जी को कालकोठरी में डलवा दिया। तभी रामदेव जी घोड़े सहित कालकोठरी पहुंचे और दर्जी से कहा:

तूने पुराने कपड़े का घोड़ा बनाया, इसलिए तुझे यह दंड मिला। भविष्य में किसी को पुराने कपड़े से कोई वस्तु न बनाना। परंतु मैं तुझे क्षमा करता हूं और आशीर्वाद देता हूं – जहां मेरी पूजा होगी, वहां तेरे बनाए कपड़े के घोड़े की भी पूजा की जाएगी।

तभी से आज तक बाबा रामदेव जी के साथ कपड़े के घोड़े की भी पूजा की जाती है।

4. भैरव राक्षस का अंत:

एक दिन बालक रामदेव जी अपने भाई विरमदेव जी और गांव के अन्य बच्चों के साथ जंगल में गेंद खेलने गए। खेलने से पहले सभी बच्चों ने नियम बनाया कि जो गेंद को सबसे दूर फेंकेगा, वही उसे लेने जाएगा। सबने बारी-बारी से गेंद फेंकी, और अंत में रामदेव जी की बारी आई। उन्होंने गेंद को इतनी जोर से फेंका कि वह बहुत दूर जा गिरी। बाकी बच्चों ने कहा, "तुमने दूर फेंकी है, अब जाकर ले आओ।"

रामदेव जी बोले, "चिंता मत करो, गेंद जहां भी होगी, मैं उसे लेकर आऊँगा।" गेंद को ढूँढते-ढूँढते रामदेव जी शाम के समय एक कुटिया तक पहुँचे, जहाँ उन्होंने एक साधु को ध्यानमग्न अवस्था में बैठे देखा। रामदेव जी ने साधु को प्रणाम किया। साधु बालीनाथ जी थे। उन्होंने जैसे ही आँखें खोलीं, सामने एक तेजस्वी चंद्रमुखी बालक को खड़ा देखा।

उन्होंने पूछा, "बेटा, तुम कौन हो और यहाँ कैसे आए हो?"
रामदेव जी ने उत्तर दिया, "हम खेल रहे थे, मेरी गेंद इस दिशा में आ गई, मैं उसे ढूँढते-ढूँढते यहाँ आ गया।"
बालीनाथ जी बोले, "तुम्हें पता नहीं, इस इलाके में भैरव नामक एक भयंकर राक्षस रहता है, जो इंसानों और जीवों को मारकर खा जाता है। अब उसके आने का समय हो गया है, तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ।"
रामदेव जी ने कहा, "मैं बालक हूँ और रात में डर लगता है, सुबह होते ही चला जाऊँगा।"
यह सुनकर बालीनाथ जी ने उन्हें कुटिया में गुदड़ी ओढ़ाकर सुला दिया और कहा, "कुछ भी हो जाए, आवाज मत करना।"
रात के समय भैरव राक्षस कुटिया में आ गया और बोला, "गुरुदेव, मुझे यहाँ मनुष्य की गंध आ रही है, बताइए वह कहाँ छिपा है?"
बालीनाथ जी बोले, "तूने बारह-बारह कोस तक किसी को नहीं छोड़ा, यहाँ मनुष्य कहाँ से आएगा?"
भैरव ने कुटिया में चारों ओर देखा, लेकिन कुछ नजर नहीं आया। वह बोला, "गुरुदेव, अगर आपने नहीं बताया, तो मैं आपको खा जाऊँगा।"
रामदेव जी ने सोचा – गुरु का आदेश है, बोल नहीं सकता, लेकिन गुदड़ी तो हिला सकता हूँ।
जैसे ही उन्होंने गुदड़ी हिलाई, भैरव की नजर उस पर पड़ी। वह गुदड़ी खींचने लगा। परंतु जैसे-जैसे खींचता गया, गुदड़ी बढ़ती ही गई – जैसे महाभारत में द्रौपदी का चीर बढ़ता गया था।
गुदड़ी खींचते-खींचते भैरव थक गया। अंत में डरकर वह पहाड़ी की ओर भागा।
रामदेव जी उठे और बालीनाथ जी से आज्ञा लेकर भैरव के पीछे दौड़े। पहाड़ी के पास उन्होंने भैरव को पकड़कर मारना शुरू किया।
भैरव डरकर क्षमा माँगने लगा और बोला, "मैं यहाँ से चला जाऊँगा, मुझे छोड़ दो।"
तब रामदेव जी ने अपने भाले को चरों दिशाओं में घुमाते हुए कहा, "जा, जहाँ मेरा नाम न हो, वहाँ उतर जा, मैं तुझे छोड़ दूँगा।"
भैरव ने देखा – चारों दिशाओं में राम का नाम है, वह कहीं भी नहीं जा सकता।
तब रामदेव जी ने उसे धरती में गाड़ना शुरू कर दिया।
भैरव बोला, "परंतु मैं खाऊँगा क्या?"
तब रामदेव जी बोले, "रूणिचा (रामदेवरा) में मेरी पूजा के समय जब सवा लाख मनुष्य एकत्र होंगे, तब उनमें से एक मनुष्य तुम्हारा भोजन बनेगा।"

आज भी जब रामदेवरा के मेले में सवा लाख श्रद्धालु एकत्र होते हैं, तब एक मनुष्य रामसरोवर तालाब में भैरव का भोजन बनता है।

रूणिचा की स्थापना

भैरव को मारकर रामदेव जी ने सन् 1425 में भैरव गुफा से 12 कि.मी उतर दिशा में कुंआ खुदवा कर रूणिचा गाँव की स्थापना की| ओर रामदेव जी ने नेजार धर्म की नीव रखी जिसमे ऊँच नीच जात-पात का भेद भाव मिटा कर रामदेव जी सबको एक समान मानते थे |

5.  सारथीया खाती को जीवनदान:

सारथीया खाती रामदेव जी का बाल सखा था। एक दिन प्रातः जब खेल शुरू हुआ, तो रामदेव जी ने देखा कि सारथीया खेल में नहीं आया।

रामदेव जी उसके घर पहुँचे और उसकी माता से पूछा, "माँ, मेरा मित्र सारथीया कहाँ है?"

माता ने रोते हुए कहा, "बेटा, अब वह इस संसार में नहीं है, केवल उसकी यादें रह गई हैं।"

रामदेव जी की नजर मरे हुए सारथीया की देह पर पड़ी। वे उसके पास गए, उसका हाथ पकड़ा और बोले:

"हे मित्र! इतनी गहरी नींद में क्यों सो गया है? क्या मुझसे नाराज़ है?

मैं तुझे अपनी कसम देता हूँ – अभी मेरे साथ खेलने चल।"

इतना कहते ही रामदेव जी ने उसका हाथ खींचा, और चमत्कार हुआ – सारथीया उठकर बैठ गया और बोला, "माँ, मैं खेलने जा रहा हूँ।"

सभी लोग यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गए और "बाबा रामदेव जी की जय!" के नारे लगाने लगे।

6. गाय के बछड़े को जीवनदान :

एक दिन रामदेव जी अपने घोड़े पर सवार होकर भ्रमण हेतु निकले हुए थे। इस बीच, उनके भाई विरमदेव जी की दहेज में प्राप्त हुई कामधेनु गाय का बछड़ा अचानक मर गया। जब यह बात उनकी भाभी को पता चली तो वे अत्यंत दुखी होकर विलाप करने लगीं और रामदेव जी को पुकारते हुए बोलीं, “आप तो अंतर्यामी हैं, सब कुछ जानते हैं, यदि इस बछड़े को जीवित नहीं किया गया तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगी।”

भाभी की यह करूण पुकार सुनकर रामदेव जी शीघ्र महल पहुँचे और बोले, “भाभी, आप क्यों रो रही हैं? बछड़ा तो जीवित है, वह अपनी माँ का दूध पी रहा है।” जब विरमदेव जी और उनकी पत्नी वहाँ पहुँचे तो उन्होंने देखा कि वास्तव में बछड़ा जीवित हो चुका है। यह देखकर सबको रामदेव जी की चमत्कारी शक्ति पर विश्वास और श्रद्धा और भी दृढ़ हो गई।

7. सेठ की डूबती नाव को बचाना :

रूणीचा गाँव में एक सेठ रहता था जो भगवान का भजन करता था। एक दिन रामदेव जी ने उससे कहा, “तुम प्रदेश जाओ और व्यापार करो।” सेठ ने उत्तर दिया, “प्रभु, प्रदेश में तो नदियाँ, नाले और समुद्र हैं, वहाँ जाना कठिन है। क्या पता, मैं जीवित वापस लौट भी पाऊँगा या नहीं।”

रामदेव जी ने कहा, “जब भी संकट आए, मुझे स्मरण कर लेना।” सेठ प्रदेश गया और वहाँ उसका व्यापार खूब फला-फूला। एक दिन जब उसे अपने बच्चों की याद आई, तो वह रूणीचा लौटने को निकला। उसने सोचा, “रामदेव जी के लिए क्या ले जाऊँ?” उसने हीरों से जड़ा एक भारी हार खरीदा।

नाव से लौटते समय उसके मन में लालच आया और उसने सोचा कि इस हार को बेचकर और अधिक धन कमाऊँगा। प्रभु ने उसकी यह भावना जान ली और समुद्र में भीषण तूफ़ान उत्पन्न कर दिया। नाव डूबने लगी। सेठ ने बहुत से देवी-देवताओं को पुकारा, किन्तु कोई सहायता नहीं मिली।

तब उसे रामदेव जी की बात याद आई और वह जोर-जोर से उन्हें पुकारने लगा। उसकी पुकार सुनकर रामदेव जी ने अपनी दिव्य शक्ति से हाथ आगे बढ़ाया और नाव को किनारे सुरक्षित पहुँचा दिया।

8. लखी बनजारे की परीक्षा :

लखी नामक एक बनजारा मिश्री का व्यापारी था। एक दिन वह मिश्री की बोरियाँ बैलगाड़ी में लादकर रूणीचा से गुजर रहा था। रामदेव जी ने उससे पूछा, “इसमें क्या है?” लखी ने व्यापारिक डर से झूठ कहा, “इसमें नमक है।”

जब वह अगले गाँव के एक सेठ के पास मिश्री बेचने पहुँचा और बोरी खोली, तो उसमें सचमुच नमक था। वह दौड़कर रूणीचा आया और रामदेव जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। उसने जीवन में कभी असत्य न बोलने का संकल्प लिया। तब रामदेव जी ने अपनी दिव्य शक्ति से नमक को पुनः मिश्री में बदल दिया।

9. पाँच पीरों की परीक्षा :

रामदेव जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। मक्का से पाँच पीर उनकी परीक्षा लेने रूणीचा आए। रामदेव जी लीले घोड़े से उतरकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। जब पीर पास आए और पूछा कि रामदेव जी कहाँ रहते हैं, तो उन्होंने स्वयं को ही रामदेव बताया।

पीर उन्हें देखकर हैरान हुए, सोचने लगे कि इतना साधारण बालक क्या सचमुच वही रामदेव है? रामदेव जी ने उन्हें आदरपूर्वक बैठाया। पीरों ने दातून कर वहाँ जमीन में गाड़ दीं, जहाँ पाँच पेड़ उग आए जो आज भी वहाँ स्थित हैं।

रामदेव जी उन्हें भोजन के लिए घर ले गए। जब पाँचों ने एक ही रज़ाई पर बैठने की बात कही, तो रज़ाई लंबी होती गई और सभी उसमें समा गए। फिर उन्होंने कहा, “हम अपने कटोरे मक्का में भूल आए हैं।” रामदेव जी ने हाथ बढ़ाया और पाँचों कटोरे प्रकट हो गए। पीरों ने कटोरों को पहचान लिया और रामदेव जी को 'रामापीर' की उपाधि दी।

10. पुंगलगढ़ के पड़ीहारों का गर्व नाश :

रामदेव जी की बहन सुगना का विवाह पुंगलगढ़ के राजा किसनसिंह से हुआ था। पड़ीहारों को जब पता चला कि रामदेव जी छोटी जाति के लोगों के साथ बैठकर भजन-कीर्तन करते हैं, तो उन्होंने सुगना का मायके आना-जाना बंद कर दिया।

रामदेव जी के विवाह में जब सुगना नहीं आई, तो उनकी माता ने दुख प्रकट किया। रामदेव जी ने रतना राईका को भेजा, पर उसे कालकोठरी में बंद कर दिया गया। यह जानकर रामदेव जी ने दिव्य सेना तैयार कर युद्ध की घोषणा कर दी।

पुंगलगढ़ में युद्ध हुआ और पड़ीहारों ने आत्मसमर्पण कर दिया। रामदेव जी ने उन्हें क्षमा कर दिया और सुगना को सम्मानपूर्वक रूणीचा भेजा गया।

11. नेतलदे की पगुता दूर करना :

रामदेव जी का विवाह अमरकोट के राजा दलजी सोढ़ा की पुत्री नेतलदे से हुआ थानेतलदे रुक्मिणी का अवतार थीं, परंतु श्रापवश पंगु थीं। जब विवाह के फेरे लेने का समय आया, तो रामदेव जी ने अपनी दिव्य शक्ति से उनकी लंगड़ापन दूर कर दिया और वे सामान्य रूप से चलने लगीं।

12. नेतलदे की सखियों को सबक :

रामदेव जी विवाहोपरांत कुंवर कलेवा के समय रानी नेतलदे की सखियों ने मज़ाक में भोजन की थाली में मरी हुई बिल्ली रख दी और ऊपर वस्त्र ढक दिया। जब रामदेव जी ने वस्त्र हटाया, तो बिल्ली जीवित होकर भाग निकली और महल में अनेक बिल्लियाँ प्रकट हो गईं।

13. सुगना बहन के बालक को जीवनदान :

रामदेव जी के विवाह की रात सुगना बाई के पुत्र को साँप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई। सुगना ने यह दुख किसी को नहीं बताया। जब रामदेव जी को पता चला कि सुगना बधावा देने नहीं आई, तो उन्होंने कारण पूछा।

सुगना रोने लगी और कुछ न कह सकी। तब रामदेव जी महल में गए और अपनी दिव्य शक्ति से मृत भांजे को स्पर्श किया, जिससे वह पुनर्जीवित हो गया और खेलने लगा।


6. हिन्दू-मुस्लिम एकता और अनुयायियों की विविधता :

रामदेव जी ने दोनों समुदायों में समान श्रद्धा पाई। सिंधी समाज में वे "झूलेलाल" के समकक्ष पूजे जाते हैं। हिन्दू उन्हें विष्णु का अवतार मानते हैं और मुस्लिम उन्हें पीर। यह उनकी शिक्षाओं की सार्वभौमिकता का प्रमाण है।

7. रामदेवरा मंदिर और समाधि स्थल :

बाबा रामदेव जी की जीवित समाधि और भक्त डालीबाई का समर्पण

बाबा रामदेव जी ने विक्रमी संवत 1442 में जीवित समाधि ली थी। रामदेव जी की इस समाधि के साथ एक और नाम अत्यंत श्रद्धा और भक्ति से जुड़ा हुआ है, और वह नाम है डालीबाई।

इतिहासकारों के अनुसार, जब डालीबाई जंगल में गायों के बछड़े चरा रही थीं, तभी उन्हें रूणीचा की दिशा से अलग-अलग वाद्य यंत्रों की मधुर ध्वनियाँ सुनाई पड़ीं। इस अनोखी ध्वनि को सुनकर डालीबाई ने एक पथिक से पूछा कि यह क्या हो रहा है। पथिक ने उत्तर दिया – "रामदेव जी स्वर्ग पधार रहे हैं।"

यह सुनते ही डालीबाई भावविभोर हो उठीं और तुरंत गायों के बछड़ों से बोलीं –
"तुम सभी को रामदेव जी की सौगंध है, शाम होते ही घर लौट जाना।"
यह कहकर डालीबाई दौड़ती हुई रूणीचा की ओर चल पड़ीं। जब वे वहाँ पहुँचीं, तब उन्होंने देखा कि रामसरोवर के पास रामदेव जी की समाधि तैयार की जा रही है।
डालीबाई वहाँ पहुँचकर अपने इष्टदेव रामदेव जी से बोलीं –
"यह समाधि मेरी है, मैं यहीं समाधि लूँगी।"
वहाँ उपस्थित लोग यह सुनकर चकित रह गए और बोले –
"आपकी समाधि है, इसका क्या प्रमाण है?"

तब डालीबाई ने शांत भाव से उत्तर दिया –

थोड़ा और गहरा खोदिए, यदि मिट्टी के नीचे से मेरी आटी (लोटा), कंगन और डोरा (धागा) निकले, तो यह प्रमाण होगा कि यह स्थान मेरी समाधि के लिए पूर्वनिर्धारित है।

जब लोगों ने कुछ और खुदाई की, तो वास्तव में वहीं से डालीबाई द्वारा बताए गए तीनों चिन्ह – आटी, कंगन और डोरा प्राप्त हुए। यह देखकर सभी लोग डालीबाई की सिद्ध भक्ति और भविष्यज्ञान पर अचंभित रह गए।
तब बाबा रामदेव जी ने स्वयं घोषणा की –
"सज्जनों, यह स्थान अब डालीबाई की समाधि का होगा।"

डालीबाई ने रामदेव जी से विनम्रतापूर्वक यहीं समाधि लेने की आज्ञा मांगी। रामदेव जी ने ससम्मान आज्ञा दी, जिसके पश्चात डालीबाई उसी स्थान पर समाधि में लीन हो गईं।

इसके पश्चात रामदेव जी ने उपस्थित लोगों से कहा –

"मैं आज से तीन दिन बाद, अर्थात एकादशी के दिन, समाधि लूँगा।"

उधर, जब डालीबाई के परिवारजनों को इस घटना की सूचना मिली, तो वे भागते हुए वहाँ पहुँचे। डालीबाई ने सबका आशीर्वाद लिया और अंतिम समय में भक्तों को वचन देते हुए कहा –

"जो भी भक्त श्रद्धा और विश्वास से मेरी पूजा करेगा, उसके जीवन में अन्न और धन की कोई कमी नहीं रहेगी। मेरी पूजा सदैव रामदेव जी के साथ की जाएगी। जो लोग केवल रामदेव जी की पूजा करेंगे और मेरा नाम नहीं लेंगे, उन्हें केवल सामान्य फल मिलेगा। लेकिन जो ‘राम नाम’ का स्मरण करेगा, उसका कल्याण अवश्य होगा।"

इतना कहकर डालीबाई संत भाव से समाधिस्थ हो गईं और भक्तों के हृदय में सदा के लिए अमर हो गईं।

यह रहा आपके द्वारा दिए गए पूरे विवरण का पूर्णतः हिंदी भाषा में लिखा गया शुद्ध और भावपूर्ण पुनर्लेखन:

बाबा रामदेव जी की जीवित समाधि – अन्तर्ध्यान की दिव्य लीला

डालीबाई द्वारा समाधि लेने के दो दिन बाद, बाबा रामदेव जी की समाधि की तैयारी प्रारंभ हुई। जब समाधि खोदी गई, तो उसमें से पीताम्बर (पीला वस्त्र), झालर, शंख और खड़ाऊँ (चप्पलें) प्राप्त हुईं। ये दिव्य चिन्ह देखकर वहां उपस्थित श्रद्धालुजन भावुक हो उठे और उनमें यह विचार जागृत हो गया कि अब रामदेव जी उनसे विदा लेने वाले हैं। लोगों के मन में उत्पन्न इस दुख को देखकर बाबा रामदेव जी ने उन्हें शांत और सहज स्वर में समझाया –

जो इस संसार में आता है, उसे एक दिन यहां से जाना ही पड़ता है।

फिर भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी, संवत 1442 को, बाबा रामदेव जी ने अपने करकमलों में क्षीफल (नारियल) लिया और सभी बड़े-बुज़ुर्गों को साष्टांग प्रणाम किया। सभी भक्तों ने रामदेव जी का अंतिम बार पूजन किया।

इसके पश्चात, रामदेव जी समाधि में खड़े होकर उपस्थित जनसमूह से बोले –

प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को मेरी पूजा, पाठ और रात्रि जागरण करना। मेरी समाधि के दर्शन और पूजन में किसी भी प्रकार का जात-पात, ऊँच-नीच या भेदभाव मत रखना।

रामदेव जी ने आगे कहा –

"प्रत्येक वर्ष भाद्रपद मास की प्रतिपदा (एकम) से लेकर एकादशी तक मेरे जन्मोत्सव एवं मेरे अन्तर्ध्यान की स्मृति में मेरी समाधि पर विशाल मेला भराया जाए। इस मेले में जितना भी प्रसाद चढ़े, वह भैरव की गुफा में अर्पित कर देना। यदि यह प्रसाद भैरव की गुफा में न चढ़ाया गया, और यदि एक लाख भक्त एकत्र हो गए, तो भैरव जलमृत्यु रूप धारण कर नरभक्षी बन जाएगा और अपनी भेंट स्वरूप एक मनुष्य को निगल जाएगा।"

बाबा रामदेव जी ने यह भी स्पष्ट रूप से कहा –
मेरी समाधि के पश्चात चाहे कोई देवता या मनुष्य क्यों न आए, परन्तु मेरी समाधि को दोबारा कभी मत खोदना।
फिर उन्होंने यह वचन भी दिया –

जो भी भक्त मेरी समाधि पर गुग्गुल, धूप, घी की ज्योति और सफ़ेद ध्वजा चढ़ाएगा, उसकी सभी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होंगी।

इन दिव्य वचनों को कहकर रामदेव जी ने अपनी माता-पिता को ससम्मान प्रणाम किया और रतन (रत्न), कटोरा, अभय और पीताम्बर को साथ लेकर "ॐ" का जाप करते हुए धीरे-धीरे समाधि में अन्तर्ध्यान हो गए।

रामदेव जी के अन्तर्ध्यान के बाद आसपास के क्षेत्र के लोग उनकी समाधि पर दर्शन करने आने लगे और श्रद्धा से उनकी पूजा-अर्चना करने लगे। तभी से रूणीचा में बाबा रामदेव जी की समाधि एक महान तीर्थस्थल बन गई, जहाँ आज भी लाखों श्रद्धालु जन मनोकामनाएँ लेकर आते हैं और उन्हें पूर्ण होते हुए अनुभव करते हैं।

स्थान : रामदेवरा, जैसलमेर, राजस्थान
विशेषताएँ :
 रामसरोवर : जहाँ स्नान कर लोग चमत्कारी लाभ मानते हैं
पर्चा बावड़ी: जल का चमत्कारिक स्त्रोत
समाधि स्थल : यहीं उन्होंने ‘जीव समाधि’ ली

मंदिर की वास्तुकला राजस्थानी शैली की है, जो संगमरमर और पीले पत्थर से बनी है।


8. रामदेवरा मेला – भक्ति और आस्था का पर्व :

समय : भाद्रपद शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक (अगस्त-सितंबर)
विशेषताएँ :
लाखों भक्त पैदल यात्रा करते हैं
भजन, कीर्तन, कथा, जागरण

निशान चढ़ाना और झंडा यात्रा


10. विरासत और आधुनिक महत्व :

आज भारत और विदेशों में हजारों मंदिर बाबा रामदेव जी को समर्पित हैं। मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली से लेकर दुबई, केन्या, यूके, यूएसए तक उनकी भक्ति की लौ जल रही है। उनके भजन, आरती और व्रत आज भी लाखों लोगों की आस्था का केंद्र हैं।

निष्कर्ष: एक सार्वभौमिक संत की प्रेरणा :

बाबा रामदेव जी का जीवन केवल धार्मिक नहीं, सामाजिक क्रांति का प्रतीक है। उन्होंने अपने विचारों और कर्मों से यह सिद्ध किया कि “सच्ची भक्ति सेवा और समानता में है।”
अगर आप जीवन में प्रेम, भक्ति और सेवा को अपनाना चाहते हैं, तो बाबा रामदेव जी का मार्ग आपको ज़रूर प्रेरित करेगा।
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भगवान  बाबा रामदेवजी  की वंशावली 
1) भगवान  रामदेवजी
2) देवराज जी
3) रतन सिंह जी
4) राव  साहब गोविंद सिंह जी
5) देवकरण जी
6) पृथ्वीराज जी
7) राणों जी
8) माढ़न जी
9) भूपत सिंह जी
10) रघुनाथ सिंह जी 
11) मान सिंह जी
12) अजब सिंह जी
13) किशोर सिंह जी
14) संवाई सिंह जी
15) चेन सिंह जी 
16) राम सिंह जी
17) बुलिदानी सिंह जी
18) हिम्मत सिंह  जी 
19) राज सिंह जी
20) रिडमल सिंह जी
21) जसवंत सिंह जी 
22) भोमं  सिंह जी तंवर  वर्तमान पदासीन 

DISCLAMER :
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