रविवार, 12 जनवरी 2020




" मुझको ऐसे धर्मावलम्बी होने को गौरव है, जिसने संसार को ‘सहिष्णुता’ तथा ’सब धर्माें को मान्यता प्रदान’ करने की शिक्षा दी है। "

" मुझे आपसे यह निवेदन करते गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेजी शब्द  Exclusion का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं! "

" मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्माें के बहिष्कृत मतावलम्बियों को आश्रय दिया है। "


।। स्वामी विवेकानन्द  जयन्ती  विशेष 12 जनवरी 2020 ।।







।। शिकागो वक्तृता में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिये गये व्याख्यान का यह अंश, आज के विश्व-प्ररिपेक्ष में सटीक बैठता है और भारत वंशियों को गौरान्वित करता प्रतीत होता है। जो इस प्रकार है: -


मुझको ऐसे धर्मावलम्बी होने को गौरव है, जिसने संसार को ‘सहिष्णुता’ तथा ’सब धर्माें को मान्यता प्रदान’ करने की शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्माें के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्माें को सच्चा मानकर ग्रहण करते हैं। मुझे आपसे यह निवेदन करते गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेजी शब्द  Exclusion का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं!
मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्माें के बहिष्कृत मतावलम्बियों को आश्रय दिया है। मुझे यह बतलाते गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का पवित्र मन्दिर रोमन-जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया, उसी वर्ष कुछ अभिजात यहूदी आश्रय लेने दक्षिण भारत में आये और हमारी जाति ने उन्हें छाती से लगाकर शरण दी। ऐसे धर्म में जन्म लेने का मुझे अभिमान है, जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अब तक कर रहा है। भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र के कुछ पद सुनाता हूँ, जिसे मैं अपने बचपन से गाता रहा हूँ और जिसे प्रतिदिन लाखों मनुष्य गाया करते हैं।

रूचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।


- ’’जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्त्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढे़-मेढे़ अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में मुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’’ यह सभा, जो संसार की अब तक की सर्वश्रेष्ठ सभाओं में से एक है, जगत् के लिए गीता के उस अद्भुत उपदेश की घोषणा एवं विज्ञापन है, जो हमें बतलाता है -

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। 


- ’’जो कोई मेरी ओर आता है - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’’ साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धर्म-विषयक उन्मत्त्ता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं। इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी, इन्होंने अनेक बार मानव-रक्त से धरणी को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली तथा समस्त जातियों को हताश कर डाला। यदि यह सब न होता, तो मानव-समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका भी समय आ गया है, और मैं पूर्ण आशा करता हूँ कि जो घण्टे आज सुबह इस सभा के सम्मान के लिए बजाये गये हैं, वे समस्त कट्टरताओं, तलवार या लेखनी के बल पर किये जाने वाले समस्त अत्याचारों तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होेने वाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं के लिए मृत्यु-नाद ही सिद्ध होंगे।

















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